


छलयसि विक्रमणे बलिम् अद्भुत-वामन||
पद-नख-नीर-जनित-जन-पावन ||
केशव धृत-वामन रूप जय जगदीश हरे ||5||
"हे केशव, हे सम्पूर्ण जगत के स्वामिन् ! हे श्रीहरे ! आप वामन रूप धारण कर तीन पग धरती की याचना। यह लोक समुदाय आपके पद-नख-स्थित सलिलसे पवित्र हुआ है। हे अदभुत वामन देव ! आपकी जय हो "
भगवान् नारायण के दस प्रमुख अवतारों में से पांचवा स्थान भगवान वामन देव का है। भगवान् के इस स्वरूप को उपेंद्र, उरुक्रम, और त्रिविक्रम के नाम से भी जाना जाता है।
भगवान् के इस परम दयालु स्वरूप की उत्पत्ति का कारण किसी दुष्ट का संहार नहीं बल्कि अपने प्रिय भक्त की अनर्थ निवृत्ति के लिए हुई थी। भगवान् अपने भक्तों की केवल रक्षा ही नहीं करते बल्कि उन्हें पतन से भी बचाते है। अहंकारवश प्राणी अक्सर अपने विनाश को स्वयं निमंत्रण दे बैठता है। मगर अगर वो व्यक्ति भगवान् का भक्त हो तो अपने आधीन होने के नाते भगवान् उसको अवश्य इस अनिष्ट से बचाने आते है। ऐसा ही कुछ हुआ प्रल्हाद महाराज के परपौत्र महाराजा बली के साथ। असुर राज महाबली इतने शक्तिशाली थे के उन्होंने पूरी धरती पर अपना एक छत्र राज स्थापित कर लिया था और अब उनकी दृष्टि पाताल और स्वर्ग लोक पर थी। महाबली अब अपने अधिकार से परे विषय की कामना करने लगे थे। स्वर्ग लोक, जिसपर अधिकार केवल पुण्य कर्मों से उचित समय आने पर मिलता है महाबली उसको अपने बल और यज्ञ के दम पर समय से पहले अधिकार कर लेना चाहते थे।
इस बात से इंद्र देव की माता देवी अदिति बहुत आहत हुई और सहायता मांगने श्री हरी नारायण के पास गईं और उन्हें उनका एक वचन याद दिलाया। सतयुग के दौरान भगवान् ने अपने परब्रह्म स्वरूप में देवी अदिति को उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का वचन दिया था। भगवान् ने देवी अदिति को दिए उस वचन का मान रखते हुए उन्हें जल्द ही उनके पुत्र के रूप में जन्म लेने का आश्वासन दिया। दूसरी ओर महाबली ने दैत्य गुरु शुक्र के निर्देशानुसार स्वर्ग पर चढ़ाई की पूरी योजना बना ली थी।
अगर बली का ये मनोरथ पूर्ण जाता तो उसका पतन निश्चित था। वह असमय स्वर्ग पर आधिपत्य तो जमा लेता मगर वो धर्म के विरुद्ध होता और ऐसा होने से महाबली की दुर्गति निश्चित थी। अपना भक्त होने के नाते भगवान् नारायण को बली का मार्ग दर्शन करना आवश्यक हो गया था और इसके लिए भगवान् ने देव माता अदिति के सबसे छोटे पुत्र उपेंद्र के रूप में जन्म लिया और राजा बली के दरबार में भिक्षाटन के लिए पहुँच गए।
बली के दरबार का एक नियम था के जो भी ब्राह्मण वह आता उसको उसकी इच्छानुसार भिक्षा प्रदान की जाएगी। जब वामन देव उपेंद्र दरबार में पहुँचे तब बली ने उन्हें मनोवांछित भिक्षा मांगने का आग्रह किया। इसके उत्तर में वामन देव ने उनसे तीन पग भूमि मांगी। यह सुन कर बली ने भगवान् से कुछ और भी मांगने को कहा जिस पर भगवान् ने बली को उत्तर दिया के "अगर मुझे भाग्य की यह तीन पग जमीन संतुष्ट नहीं कर पाई तो भले ही मुझे पूरा संसार मिल जाये, मगर संतुष्टि नहीं मिलेगी। इसलिए अच्छा यही रहता है के प्राणी अपने प्रारब्ध में लिखी संपत्ति में ही संतुष्ट रहे" यह कह कर भगवान् ने बली को इशारा दिया मगर राजा बली इस बात को अभी भी नहीं समझ पाए थे।
शुक्राचार्य यह बात समझ गए थे के ये वामन बालक और कोई नहीं बल्कि स्वयं विष्णु है। उस छोटे से वामन बालक के तेज और वाक्पटुता को देख शुक्राचार्य का संदेह सत्य में परिवर्तित हो गया। यह बालक और कोई नहीं बल्कि स्वयं विष्णु थे। शुक्राचार्य ने बिना देर किये यह बात बली को बताई तो बली सावधान होने के स्थान पर और भी अधिक खुश हो उठा। आखिर उसके भगवान् स्वयं उसके घर पधारे थे। जैसे ही बली को उपेंद्र के असली स्वरूप का भान हुआ वैसे भी भगवान् का शरीर विशाल रूप में अवस्थित हो गया। भगवान् का स्वरूप इतना विराट था के उन्होंने एक पग में पूरी पृथ्वी और एक पग में स्वर्ग को अपने आधीन कर लिया। भगवान् का ये विराट स्वरूप देख बली को अपनी भूल का आभास हुआ और उन्होंने भगवान् से अपना तीसरा पग अपने शीश पर रखने का आग्रह किया। बली की इस ईश निष्ठा और समर्पण के भाव को देख कर भगवान् अत्यंत प्रसन्न हुए और बली को सुतल लोक का राजा बना दिया। तत्कालीन इंद्र की अवधि पूरी होने पर देवलोक का सिंघासन भी राजा बली को सौंप उन्हें इंद्र बनाया जायेगा।