


वितरसि दिक्षु रणे दिक्-पति-कमनीयम्
दश-मुख-मौलि-बलिम् रमणीयम्
केशव धृत-राम-शरीर जय जगदीश हरे ||7||
"हे श्री हरी ! हे केशव ! आपने राम रूप धारण कर संग्राम में इन्द्रादि दिक्पालों को कमनीय और अत्यन्त मनोहर रावण के किरीट भूषित सरों की बलि दश दिशाओं में वितरित की । हे रामस्वरूप परमात्मा आपकी जय हो "
श्री जयदेव गोस्वामी कृत दशावतार स्तोत्र में गोविन्द का सातवाँ अवतार रघुपति राम का है। बाकी सभी अवतारों की तरह प्रभु श्री राम अवतार अंश अवतार नहीं बल्कि स्वयं भगवान् का सम्पूर्ण स्वरूप है। इसी कारण से भगवान श्री राम को सम्पूर्ण विधाता भी कहा जाता है। भगवान् के इस अवतार में उनकी शैय्या बने अनंत शेष श्री लक्ष्मण के रूप में, कौमोदकी गदा श्री भरत जी के रूप में और स्वयं सुदर्शन चक्र शत्रुघ्न के रूप में प्रकट हुए जो भगवान् के अनुजों के रूप में अवस्थित हुए।
भगवान् की इस लीला में सभी देव गण किसी न किसी रूप में सम्मिलित हुए। स्वयं भगवान् शिव भी श्री हनुमान के रूप में और देवी आदि शक्ति महालक्ष्मी जनक सुता सीता के रूप में प्रकट हुईं। भगवान् अपने इस अवतार में अपने प्रिय भक्त जय और विजय का पुनः उद्धार करने आये थे जो इस बार रावण और कुम्भकरण के रूप में अपना दूसरा जन्म ले चुके थे।
पढ़े भगवान् के प्रिय भक्त जय और विजय को कैसे मिला श्राप
रावण और कुम्भकरण महर्षि विश्रवा जी के पुत्र और स्वयं ब्रह्माजी के पौत्र थे। ब्राह्मण कुल में जनम लेने के बाद भी दोनों में आसुरी प्रवृत्तियाँ व्याप्त थी। समय के साथ दोनों की शक्तियाँ और भी बढ़ती गई और रावण ने स्वर्णिम लंका को अपने आधीन कर लंकेश्वर बन गया था। दोनों भाइयों का अत्याचार बढ़ता ही जा रहा था। ऋषियों के यज्ञ को भंग करना, उनसे कर लेना और न जाने कैसे कैसे घृणित कार्य थे जिनमें दोनों भाई लिप्त थे। इतना ही नहीं, रावण ने अयोध्या के राजा नेमि जिन्हें सब दशरथ के नाम से भी जानते हैं, उन्हें भी परास्त किया।
रावण को एक वरदान प्राप्त था जिसके कारण उनको परास्त करना स्वयं इंद्र या और किसी देव के हाथों संभव न था। रावण का अंत केवल एक मनुष्य के हाथों संभव था और पृथ्वी पर कोई ऐसा मनुष्य नहीं था जो रावण की शक्ति को ललकार सके। इंद्र की शक्ति के सामान बन वाले राजा दशरथ भी रावण को नहीं हरा पाए थे। अब सबकी आशा केवल भगवान् नारायण पर थी।
श्री राम भगवान् विष्णु का पूर्ण स्वरूप थे जिन्होंने उन्हीं राजा नेमि दशरथ के पुत्र के रूप में जन्म लिया। भगवान श्री राम ने रावण का अंत किया यह बात सभी जानते है मगर क्या आप जानते है के भगवान् नारायण के छठे और सातवें अवतार का जब आमना−सामना सामना हुआ तब क्या हुआ? क्या हुआ जब दोनों राम मिले?
भगवान् राम अपनी शिक्षा अल्प आयु में ही पूरी कर ऋषि विश्वामित्र के साथ देशाटन के लिए निकले। ताड़का संघार, अहिल्या उद्धार जैसी लीला सम्पूर्ण कर दोनों राजकुमार जनकपुरी पहुँचे जहाँ राजा जनक जी की पुत्री स्वयं भगवान् महालक्ष्मी स्वरूपा देवी सीता का स्वयंवर का आयोजन हो रहा था।
अवनिजा को पत्नी रूप में प्राप्त करने के लिए अनेक राजा व राजकुमार वहाँ उपस्थित थे। स्वयंवर के विजेता के चयन के लिए राजा जनक ने अत्यंत दुर्गम चुनौती का निश्चय किया। जो भी योद्धा शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाएगा, सीता उसी का वरन करने वाली थी। कई राजाओं ने शिव धनुष को प्रत्यंचा चढ़ाने का प्रयास किया मगर वो धनुष को हिला भी न पाए। जब सभी राजा यह प्रतिस्पर्धा न जीत सके तब ऋषि विश्वामित्र ने श्री राम को आदेश दिया के अब वो जाके शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा सीता का वरण करें। गुरु आज्ञा को शिरोधार्य कर श्री राम ने शिव धनुष को उठाया और सहज भाव से शिव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने लगे। भगवान् के अनंत शक्तिशाली होने के कारण शिव धनुष टूट गया और उसकी डंकार इतनी ऊँची हुई के तपस्या में लीन परशुराम जागृत हो उठे। उनके आराध्य का धनुष किसी ने तोड़ दिया था। उनके इष्ट के अपमान से वह क्रोधित थे। जिसका भी ये कृत्य था अब परशुराम उसको जीवित नहीं छोड़ने वाले थे।
प्रभु भृगुवंशी डंकार की आवाज़ की दिशा में जनकपुरी जा पहुँचे और वहा का दृश्य देख कर उनके मन में एक क्षण के लिए प्रभु राम के प्रति प्रीती जागृत हुई। भगवान् परशुराम भगवान श्री राम के परब्रह्म स्वरूप को जान गए थे। अब उन्हें देखना ये था के भगवान् का ये स्वरूप अपना अवतार कार्यभार सम्हालने के लिए परिपक्व था? क्या भगवान् राम अपेक्षा पर खरे उतर पाएँगे? यह देखने के लिए भगवान् परशुराम ने श्री राम को युद्ध के लिए ललकारा जिसके उत्तर में भगवान् राम ने विनम्रतापूर्वक उनसे क्षमा मांगी। भगवान् परशुराम की परीक्षा में राम खरे उतरे थे। भगवान् की मधुर वाणी से प्रसन्न होकर परशुराम जी वहा से चले गए। लक्ष्मी नारायण का राम सिया के स्वरूप में विवाह संपन्न हुआ, देवी उर्मिला का विवाह लक्ष्मण जी के साथ, देवी मांडवी का पाणिग्रहण भरत जी के साथ, और देवी श्रुतकीर्ति रिपुसूदन शत्रुघ्न जी की पत्नी हुई। जब श्री राम देवी सीता के साथ अवधपुरी के लिए निकले तब रास्ते में वह भगवान् परशुराम से मिले। भगवान् परशुराम ने अपनी तपस्या से अर्जित किये हुए सभी अस्त्र भगवान् राम को सौंप दिए और यह सब अस्त्र बाद में लंका युद्ध के समय भगवान् के काम आये।