


वहसि वपुशि विसदे वसनम् जलदाभम्
हल-हति-भीति-मिलित-यमुनाभम्
केशव धृत-हलधर रूप जय जगदीश हरे
"हे केशव! हे गोविन्द! आपने अपने सुन्दर शरीर पर मेघों के रंग के समान नीले वस्त्र धारण किये हैं। ऐसा लगता है जैसे स्वयं देवी कालिंदी यमुना आपके हल से भयभीत हो आपके वस्त्रों में छुपी हैं, हे हलधर अवतार में आपकी सदा जय हो।"
श्री जयदेव गोस्वामी कृत दशावतार स्तोत्र में आठवाँ स्थान वृष्णि कुल भूषण भगवान् राम का है। भगवान् का ये तीसरा स्वरूप भी राम नाम से है जिसको सब उनके असीम बल के कारण बलराम के नाम से भी जानते है। अनेक वैष्णव सम्प्रदायों के अनुसार भगवान् बलराम भगवान् श्री कृष्ण, जो परमेश्वर है, उनके सर्वप्रथम विस्तार श्री संकर्षण है। जब भगवान् विष्णु स्वरूप में होते है तब यही भगवान् संकर्षण आदि शेष के रूप में विस्तार लेते है और जब भगवान् श्री राम के रूप में विस्तार लेते तब भगवान् संकर्षण ही लक्ष्मण जी के स्वरूप में प्रकट होते है। कई पंथों में यह माना जाता है के श्री कृष्ण भगवान् विष्णु के आठवें अवतार है मगर हिन्दू शास्त्र प्रमुख श्रीमद भागवत् जी में श्री बलराम जी को भगवान् का उठवा अवतार माना गया है।
द्वापर युग में जय और विजय अब अपना तीसरा जन्म ले चुके थे और इस बार दोनों कंस और दन्तवक्र के रूप में भगवान् के समक्ष थे। यह उनका अंतिम जन्म था और इसके बाद दोनों दोबारा वैकुण्ठ प्रस्थान करने वाले थे। अपने भक्त के प्रति करुणावश उन्हें मुक्त करने भगवान् का कोई स्वरूप नहीं बल्कि भगवान् वासुदेव स्वयं प्रकट हुए। और उनकी इस लीला में सहायता के लिए उनके प्रथम विस्तार भगवान् संकर्षण प्रकट हुए। भगवान् बलराम जी देवकी और वसुदेव के सातवें पुत्र थे जिन्हें देवकी की कोख से संकर्षित कर रोहिणी देवी के गर्भ में स्थापित किया गया था। देवी योग माया के इस कार्य ने कंस को असमंजस में डाल दिया था। उसको लगता था के देवकी का सातवां गर्भ नष्ट हो चूका है अब दुविधा ये थी के इस बालक को वो सातवें में गिने या नहीं? भगवान् को जन्म से पहले ही संकर्षित किया गया जिससे भौतिक जगत में भी उनका नाम संकर्षण पड़ा।
भगवान् बलराम अपने असीम बल के लिए सुप्रसिद्ध थे, महाभारत के युद्ध में अगर वह सम्मिलित होते तो युद्ध एक ही दिन में समाप्त हो जाता मगर उन्होंने ऐसा नहीं किया ।। सब जानते थे के जिस पक्ष में बलराम होंगे, वह पक्ष स्वतः ही विजयी होगा। परन्तु उन्होंने किसी भी पक्ष में लड़ने से मना कर दिया। अर्जुन उनका बहनोई था और दुर्योधन उनका शिष्य, अब दुविधा ये थी के लड़े तो किसकी ओर से। भगवान् ने ये कार्य अपने अनुज को सौंप दिया और युद्ध में ना भाग लेने का संकल्प किया। महाभारत के युद्ध के 32 साल बाद जब गान्धारी का श्राप फलीभूत हुआ और यदुवंश भ्रष्ट होने लगा तब भगवान् बलराम ने ही यदुवंश का अंत कर भगवान् की भौतिक लीला समाप्त की और अंतर्ध्यान हो गए। अत्यंत दयालु भगवान् संकर्षण द्वापर में तो अंतर्ध्यान हुए मगर अपने भक्तों की रक्षा करने कलयुग में पुनः प्रकट हुए। अपने इस स्वरूप में बलराम जी अपने अनुज कृष्ण और बहन सुभद्रा के साथ प्रकट हुए थे।
कलयुग में भगवान् अपने अनुजों के साथ नीलांचल पर्वत पर पुरी क्षेत्र में आज भी विराजते है। इनका यह दारुब्रह्म स्वरूप श्री बलभद्र, जगन्नाथ और सुभद्रा के नाम से सुप्रसिद्ध है। भगवान् आज भी अपने भक्तों के समक्ष प्रकट स्वरूप में है और हर साल उनकी एक भव्य रथ यात्रा भी निकलती है जिसमें भक्त लाखों की संख्या में सम्मिलित होकर भगवान् का रथ खींचते है। ऐसी मान्यता है के जो व्यक्ति एक बार इस रथ को खींचता है, वह दोबारा इस भौतिक जगत में जन्म नहीं लेता। वह भक्त जन्म मरण के चक्रव्यूह से मुख हो भगवान् के श्री चरणों में स्थान पाता है।