भारतीय संस्कृति की मूलभूत अवधारणा में व्रत-उपवासों का स्थान अत्यंत गौरवमय और विशिष्ट है। ये केवल निर्धारित नियमों का पालन करने वाले धार्मिक अनुष्ठान मात्र नहीं हैं, वरन् ये आस्था, प्रेम, समर्पण और आशा की वे सशक्त धाराएँ हैं जो जीवन के सूखे मैदानों में स्नेह और विश्वास का अमृत बरसाती हैं। इन्हीं पावन व्रतों की श्रृंखला में एक अत्यंत महत्वपूर्ण मोती है अहोई अष्टमी का व्रत। यह व्रत विशेष रूप से संतान की दीर्घायु, निरोगिता, सुख-समृद्धि और उन्नति की कामना से किया जाने वाला एक ऐसा साधन है, जिसमें एक माँ की समस्त भावनाएँ समाहित हो जाती हैं। यह पर्व कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को मनाया जाता है, जो प्रायः दीपावली के उल्लासमय उत्सव से ठीक चार दिन पूर्व आता है। इस दिन माताएँ अपने बच्चों के सुखमय भविष्य और सुरक्षा के लिए अहोई माता की आराधना करते हुए कठोर निर्जला उपवास रखती हैं, जो उनके निस्वार्थ प्रेम का एक जीवंत प्रमाण है।
अहोई अष्टमी 2025: तिथि एवं शुभ मुहूर्त
सन् 2025 में अहोई अष्टमी का यह पावन व्रत सोमवार, 13 अक्टूबर को मनाया जाएगा। किसी भी धार्मिक अनुष्ठान की सफलता उसके शुभ मुहूर्त पर निर्भर करती है, अतः इसके पंचांगिक विवरण पर ध्यान देना अत्यावश्यक है।
1. अष्टमी तिथि प्रारंभ: 13 अक्टूबर 2025, सुबह 07:39 बजे से
2. अष्टमी तिथि समाप्त: 14 अक्टूबर 2025, सुबह 06:08 बजे तक
3. अहोई माता पूजा का शुभ मुहूर्त: शाम 05:53 बजे से 07:08 बजे तक
तारा दर्शन का समय (व्रत तोड़ने का समय): सूर्यास्त के लगभग 40-45 मिनट बाद, लगभग शाम 07:20 बजे के आसपास (स्थानीय भौगोलिक स्थिति के अनुसार इसमें कुछ मिनटों का अंतर संभव है)।
यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि व्रत तोड़ने का कार्य तारों को देखने के बाद ही किया जाता है, जो इस व्रत की एक विशेष परंपरा है।
अहोई अष्टमी व्रत का दार्शनिक एवं सामाजिक महत्व
अहोई अष्टमी का व्रत सांसारिक जीवन में एक माँ की भूमिका और उसकी चिंताओं को गहराई से प्रतिबिंबित करता है। जहाँ करवा चौथ का व्रत पति की दीर्घायु और सुखमय वैवाहिक जीवन की कामना को समर्पित है, वहीं अहोई अष्टमी व्रत पूर्णतः संतान के कल्याण और रक्षा से जुड़ा हुआ है। यह भारतीय समाज में नारी के उस बहुआयामी स्वरूप को दर्शाता है, जहाँ वह केवल पत्नी ही नहीं, बल्कि एक माँ के रूप में अपनी संतान के लिए हर प्रकार का तप और त्याग करने को तत्पर रहती है।
मान्यता है कि जो माता श्रद्धा और विधि-विधान से अहोई माता का पूजन-अर्चन करती है, उसकी संतान पर जीवन भर अहोई माता की कृपा-दृष्टि बनी रहती है और उन्हें किसी भी प्रकार के संकट का सामना नहीं करना पड़ता। यह व्रत केवल एक पूजा-पद्धति नहीं, बल्कि एक माँ की अपनी संतान के प्रति असीम चिंता और उसके भविष्य को सुरक्षित देखने की ललक का प्रतीक है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक बीमा है, जिसमें माताएँ अपनी सुख-सुविधाओं का त्याग करके अपने बच्चों के जीवन को सुखद और समृद्ध बनाने का प्रयास करती हैं।
व्रत की तैयारी: एक पवित्र अनुष्ठान का आरंभ
अहोई अष्टमी की तैयारी वास्तव में एक दिन पूर्व, यानी सप्तमी से ही आरंभ हो जाती है। यह तैयारी केवल सामग्री जुटाने तक सीमित नहीं होती, बल्कि मन और वातावरण को पवित्र करने की एक सुनियोजित प्रक्रिया है।
1. पूजन सामग्री का संग्रह:
इसके लिए एक दिन पहले ही सभी आवश्यक सामग्रियों को एकत्र कर लेना चाहिए। इनमें शामिल हैं:
● अहोई माता का कैलेंडर चित्र या फिर दीवार पर बनाने के लिए गेरू, सिंदूर या गोबर।
● सात प्रकार के अनाज (जौ, गेहूँ, चना, मक्का, उड़द, मूंग, चावल) जो समृद्धि के प्रतीक हैं।
● पानी से भरा एक कलश, जिस पर नारियल स्थापित किया जाता है और आम के पत्तों से सजाया जाता है।
● मिट्टी या चांदी की अहोई माता की प्रतिमा (यदि उपलब्ध हो)।
● पूजा में उपयोग होने वाला सूत (मोली) जिसे कलावा के रूप में बाँधा जाता है।
● व्रत तोड़ने के लिए दूध, बताशे, हलवा-पूरी, फल आदि।
● रेशमी या सूती का नया कपड़ा, फूल, अगरबत्ती और एक दीपक।
2. भित्ति चित्र का निर्माण: एक कलात्मक अभिव्यक्ति
यह व्रत की सबसे सुंदर और पारंपरिक परंपराओं में से एक है। सप्तमी के दिन ही दीवार पर गोबर या गेरू से अहोई माता का एक विशेष चित्र बनाया जाता है। इस चित्र में अहोई माता के साथ-साथ उनके सात पुत्रों और एक सियार (या स्याहु) का चित्र अंकित किया जाता है, जो अहोई अष्टमी की कथा से सीधे तौर पर जुड़ा हुआ है। यह चित्र केवल एक रेखाचित्र नहीं, बल्कि पूजा का केंद्र बिंदु और कथा का दृश्यात्मक निरूपण होता है।
3. कलश की स्थापना:
कलश को जल से भरकर उसे एक निश्चित स्थान पर रखा जाता है। उस पर नारियल रखकर उसे एक नए कपड़े से ढंक दिया जाता है। इस कलश को देवता का प्रतीक माना जाता है और पूजा के दौरान इसकी भी विधिवत पूजा की जाती है।
अहोई अष्टमी व्रत विधि: एक चरणबद्ध मार्गदर्शिका
व्रत के दिन की शुरुआत पवित्रता और संकल्प के साथ होती है।
1. प्रातःकालीन क्रियाएँ:
सूर्योदय से पहले उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर स्वच्छ वस्त्र धारण करें। इसके बाद अहोई माता के सामने बैठकर व्रत का संकल्प लें। संकल्प में माता अपने सभी पुत्र-पुत्रियों की दीर्घायु, स्वास्थ्य और सफलता के लिए यह निर्जला व्रत रखने का मनोनीत इरादा व्यक्त करती हैं।
2. दिनचर्या:
संकल्प लेने के बाद दिनभर बिना अन्न-जल ग्रहण किए व्रत रखा जाता है। यह एक कठोर निर्जला उपवास होता है। हाँ, गर्भवती महिलाएँ, बीमार, वृद्ध अथवा अति छोटे बच्चे फलाहार या दूध आदि ले सकते हैं, क्योंकि धर्म शरीर की क्षमता से अधिक का दबाव नहीं डालता।
3. संध्या पूजा:
दिन ढलने के साथ ही पूजा की तैयारियाँ शुरू हो जाती हैं। अहोई माता के चित्र के सामने दीपक जलाया जाता है। तांबे या मिट्टी के पात्र में जल लेकर अहोई माता को अर्पित किया जाता है। इसके बाद सभी पूजन सामग्रियों से अहोई माता की विधिवत पूजा-आराधना की जाती है।
4. कथा श्रवण:
पूजा के बाद अहोई अष्टमी की कथा सुनना या पढ़ना व्रत का सबसे महत्वपूर्ण और आवश्यक अंग माना गया है। मान्यता है कि बिना कथा सुने व्रत का पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता। कथा के दौरान सभी महिलाएँ एकत्रित होकर श्रद्धापूर्वक इसे सुनती हैं।
5. व्रत समापन (तारा दर्शन):
पूजा और कथा के बाद आकाश में तारों के दर्शन की प्रतीक्षा की जाती है। जैसे ही आकाश में तारे स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं, माताएँ अहोई माता से अपनी संतान की रक्षा का वरदान माँगती हैं और तारों को जल अर्पित करती हैं। इसके पश्चात जल ग्रहण करके व्रत का समापन किया जाता है। इसके बाद हल्का और सात्विक भोजन या पारंपरिक व्यंजन जैसे हलवा-पूरी, फल, दूध आदि ग्रहण किया जाता है।
अहोई अष्टमी की कथा: पाप से मुक्ति और संतान सुख की प्राप्ति
यह कथा एक साहूकार के परिवार से जुड़ी हुई है। उस साहूकार की सात पुत्रवधुएँ थीं। कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की अष्टमी के दिन सभी बहुएँ घर की मरम्मत के लिए जंगल में मिट्टी खोदने गईं। उनमें सबसे छोटी बहू भी साथ थी, जो बहुत ही सरल हृदय और धर्मपरायण थी।
मिट्टी खोदते समय अनजाने में उसके फावड़े से एक सियार के बच्चे की मृत्यु हो गई। यह देखकर वह अत्यंत दुःखी और व्यथित हुई। उसे लगा कि उससे एक बड़ा पाप हो गया है। कुछ ही समय बाद, उसके अपने घर के सभी बच्चे एक के बाद एक चल बसे।
इस असहनीय पीड़ा ने उसे तोड़कर रख दिया। उसने इस पाप से मुक्ति और संतान सुख पाने का उपाय जानने के लिए विद्वान ब्राह्मणों और साधु-संतों की शरण ली। उन्होंने उसे बताया कि तुम्हारे द्वारा अनजाने में हुई हत्या का प्रायश्चित करने का एकमात्र उपाय है कि तुम अगले वर्ष कार्तिक अष्टमी के दिन अहोई माता का विधिपूर्वक व्रत करो।
छोटी बहू ने पूरी श्रद्धा और नियमनिष्ठा से अहोई माता का व्रत रखा। उसकी गहन आस्था और तपस्या से प्रसन्न होकर अहोई माता ने प्रकट होकर उसे न केवल उसके पाप से मुक्ति दिलाई, बल्कि पुनः संतान सुख का वर प्रदान किया। तब से लेकर आज तक, माताएँ इस व्रत को अपनी संतान की दीर्घायु और कुशलता के लिए करती आ रही हैं।
अहोई माता की आरती: भक्ति का मधुर स्वर
पूजा के अंत में अहोई माता की आरती की जाती है, जो भक्ति भाव को और भी गहरा कर देती है।
जय अहोई माता जय जय अहोई माता,
जो सेवक तेरा नाम जपे, उसका बिगड़ा काम सवारे माता।
तेरे भक्तों ने जो माँगा, पाया सुखदाता।
जो भी श्रद्धा से पूजे, धन-धान्य बरसाए माता।
जय अहोई माता जय जय अहोई माता।
अहोई अष्टमी और करवा चौथ: एक सामंजस्यपूर्ण संबंध
कार्तिक मास का यह समय व्रत-पर्वों का समय होता है, जहाँ अहोई अष्टमी और करवा चौथ का एक विशेष संबंध देखने को मिलता है। करवा चौथ का व्रत पति की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए रखा जाता है, जबकि अहोई अष्टमी का व्रत संतान के कल्याण के लिए। दोनों ही व्रत निर्जला हैं और दोनों में ही चंद्रमा या तारों के दर्शन के बाद ही व्रत तोड़ने का विधान है। अक्सर करवा चौथ के चार दिन बाद ही अहोई अष्टमी आती है। यह क्रम स्पष्ट करता है कि भारतीय नारी अपने परिवार के प्रत्येक सदस्य - पति और संतान, दोनों के सुख और कल्याण के लिए समर्पित है। यह उसके प्रेम और कर्तव्य के दायरे की विस्तृतता को दर्शाता है।
व्रत के नियम, सावधानियाँ एवं मान्यताएँ
1. नियम:
● व्रत के दिन किसी भी प्राणी को कष्ट नहीं देना चाहिए।
● मन को शांत और पवित्र रखना चाहिए, क्रोध, ईर्ष्या आदि नकारात्मक भावनाओं से दूर रहना चाहिए।
● पूजा के बाद सात प्रकार के अनाज, वस्त्र, फल आदि का दान किसी जरूरतमंद महिला को करना अत्यंत शुभ माना जाता है।
● कथा को ध्यानपूर्वक सुनना चाहिए।
2. विशेष मान्यताएँ:
इस व्रत को गर्भधारण की इच्छा रखने वाली महिलाओं के लिए अत्यंत फलदायी माना गया है। ऐसा विश्वास है कि अहोई माता सच्चे मन से की गई प्रार्थना सुनकर संतान सुख प्रदान करती हैं।
जिन माताओं की संतान अक्सर बीमार रहती है, उनके लिए यह व्रत एक सुरक्षा कवच की तरह कार्य करता है। अहोई माता की विशेष कृपा प्राप्त करने और विशेष कर निःसंतान दम्पत्ति संतान प्राप्ति की कामना के लिए Astroscience वेबसाइट पर जा कर अपने लिए बाल गोपाल यंत्र मँगा सकते हैं।
यह व्रत संतान के सर्वांगीण विकास - शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक की कामना से भी जुड़ गया है।
धार्मिक एवं वैज्ञानिक दृष्टिकोण: एक सार्थक समन्वय
जहाँ एक ओर धार्मिक दृष्टि से यह व्रत अहोई माता में अटूट आस्था और संतान के प्रति गहन प्रेम का परिचायक है, वहीं आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी इसके लाभ हैं। निर्जला उपवास शरीर में डिटॉक्सिफिकेशन (विषहरण) की प्रक्रिया को बढ़ावा देता है, जिससे शरीर के विषैले तत्व बाहर निकलते हैं और पाचन तंत्र को आराम मिलता है। यह मानसिक दृढ़ता, अनुशासन और आत्मसंयम सिखाता है। साथ ही, समुदाय की महिलाओं का एक साथ बैठकर पूजा और कथा सुनना सामाजिक एकजुटता और सामूहिक सकारात्मक ऊर्जा का सृजन करता है, जो मानसिक स्वास्थ्य के लिए अत्यंत लाभदायक है।
निष्कर्ष: मातृत्व की अविरल धारा का प्रतीक
अहोई अष्टमी का व्रत भारतीय संस्कृति में मातृत्व की उस अविरल, निस्वार्थ और सशक्त भावना का जीवंत प्रतीक है, जो सदियों से चली आ रही है। यह केवल एक धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि एक माँ की उस अतल गहराई का उत्सव है, जो अपनी संतान के लिए हर प्रकार का कष्ट सहने और हर सीमा को पार करने को तैयार रहती है। सन् 2025 में 13 अक्टूबर को जब असंख्य माताएँ अहोई माता के चरणों में अपनी अरदास समर्पित करेंगी, तो यह दिन केवल एक धार्मिक तिथि नहीं, बल्कि संतान के प्रति असीम प्रेम और उसके उज्ज्वल भविष्य की कामना का एक पवित्र, ऊर्जावान और भावपूर्ण अवसर होगा। यह व्रत हमें यह स्मरण कराता है कि भारतीय परंपराओं की जड़ें मानवीय संवेदनाओं की अत्यंत गहरी और सच्ची भूमि में निहित हैं।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQs)
1. अहोई अष्टमी 2025 में कब है?
अहोई अष्टमी का व्रत सन् 2025 में सोमवार, 13 अक्टूबर को पड़ रहा है। पूजा का शुभ मुहूर्त शाम 05:53 बजे से 07:08 बजे तक रहेगा।
2. अहोई अष्टमी व्रत कौन रख सकता है और क्यों?
यह व्रत मुख्यतः माताएँ अपने बच्चों (पुत्र और पुत्री दोनों) की दीर्घायु, अच्छे स्वास्थ्य, सुरक्षा और समृद्धि के लिए रखती हैं। इसके अलावा, जो महिलाएँ संतान प्राप्ति की इच्छा रखती हैं, वे भी यह व्रत रख सकती हैं।
3. अहोई अष्टमी व्रत का सबसे महत्वपूर्ण नियम क्या है?
इस व्रत का सबसे महत्वपूर्ण नियम है पूरे दिन निर्जला (बिना पानी के) उपवास रखना और संध्या के समय अहोई माता की पूजा के बाद कथा का श्रवण करना। व्रत का समापन केवल तारे दिखाई देने के बाद ही जल ग्रहण करके किया जाता है।