vat savitri vrat 2025

Vat Savitri Vrat 2025: पति की लंबी आयु के लिए कैसे रखें वट सावित्री व्रत

वट सावित्री व्रत हिंदू धर्म का एक अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण पर्व है, जो मुख्य रूप से विवाहित महिलाओं द्वारा अपने पति की लंबी उम्र, सुख-शांति और समृद्ध जीवन के लिए किया जाता है। यह व्रत स्त्रियों की निष्ठा, भक्ति और आत्मबल का प्रतीक माना जाता है। इसमें महिलाएं उपवास रखती हैं और वट (बरगद) वृक्ष की पूजा करती हैं। यह पर्व सावित्री और सत्यवान की अद्भुत कथा पर आधारित है, जो स्त्री शक्ति, समर्पण और धर्म के ज्ञान की प्रेरणा देता है।

 

वट सावित्री व्रत 2025 में कब है?

 

देश के अलग-अलग हिस्सों में वट सावित्री व्रत अलग-अलग तिथि पर वर्ष में दो बार मनाया जाता है। उत्तर प्रदेश, बिहार सहित उत्तर भारत के राज्यों में यह पर्व ज्येष्ठ माह की अमावस्या को मनाया जाता है, जबकि महाराष्ट्र सहित पूरे दक्षिण भारत में यह व्रत ज्येष्ठ पूर्णिमा को ‘वट पूर्णिमा’ के रूप में रखा जाता है। साल 2025 में वट सावित्री व्रत उत्तर भारत के राज्यों में 26 मई को तथा दक्षिण भारत के राज्यों में 10 जून को रखा जाएगा। दोनों तिथियाँ अपने-अपने क्षेत्रीय पंचांग और परंपरा के अनुसार मान्य हैं, और सभी का अपना विशेष महत्व है।

 

व्रत के पीछे की पौराणिक कथा: सावित्री और सत्यवान की अमर प्रेम गाथा

 

वट सावित्री व्रत की मूल कथा महाभारत में वर्णित राजकुमारी सावित्री और उनके पति सत्यवान की है। जब यमराज सत्यवान के प्राण हरने आए, तो सावित्री ने अपने विवेक, ज्ञान और दृढ़ता से यमराज से संवाद किया। उन्होंने धर्म, कर्तव्य और नारी की मर्यादा पर ऐसे तर्क दिए कि यमराज भी प्रभावित हुए और सत्यवान को जीवनदान दे दिया। यह कथा नारी शक्ति और उसकी आध्यात्मिक क्षमता को दर्शाती है – यह संदेश देती है कि प्रेम, धैर्य और समर्पण से कोई भी अपना भाग्य बदल सकता है।

 

वट वृक्ष का धार्मिक और वैज्ञानिक महत्व

 

वट वृक्ष यानी बरगद का पेड़ भारतीय संस्कृति में अत्यंत पूजनीय है। इसे त्रिदेवों का प्रतीक माना जाता है – इसकी जड़ें ब्रह्मा का, तना विष्णु का और शाखाएं शिव का स्वरूप मानी जाती हैं। इसकी लटकती जड़ें अनंत जीवन का प्रतीक हैं और इसकी विशाल छाया सुरक्षा और आश्रय का संकेत देती है। वट वृक्ष बहुत लंबी आयु वाला वृक्ष होता है, इसलिए इसे दीर्घायु और स्थायित्व का प्रतीक भी माना गया है। वैज्ञानिक रूप से भी इसका विशेष महत्व है – यह पेड़ दिन-रात ऑक्सीजन छोड़ता है, जिससे पर्यावरण को लाभ मिलता है। इसकी छाल, पत्ते और जड़ें आयुर्वेद में औषधीय गुणों के लिए उपयोग की जाती हैं। यह जैव विविधता को भी बढ़ावा देता है और पक्षियों व जीवों के लिए आश्रय स्थल बनता है।

 

वट सावित्री व्रत की तैयारी और पूजन विधि (Step-by-Step)

 

व्रत की तैयारी एक दिन पहले से शुरू होती है। महिलाएं घर की साफ-सफाई करती हैं, पूजन सामग्री जैसे कलश, मौली (पवित्र धागा), कुमकुम, हल्दी, चावल, पुष्प, फल, मिठाई, दीपक और गंगाजल आदि एकत्र करती हैं। मानसिक तैयारी के लिए ध्यान या जप भी किया जाता है। व्रत के दिन महिलाएं ब्रह्म मुहूर्त में उठकर स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनती हैं – सामान्यतः लाल या पीले रंग के कपड़े शुभ माने जाते हैं। घर या वट वृक्ष के पास रंगोली या मांडना बनाया जाता है। महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं – जल, दूध, चंदन, कुमकुम, मौली और फूल अर्पित करती हैं। वृक्ष की 108 बार परिक्रमा की जाती है और हर परिक्रमा के साथ व्रत मंत्र बोले जाते हैं, साथ ही पवित्र धागा पेड़ पर लपेटा जाता है। इसके बाद सावित्री-सत्यवान की कथा सुनना या पढ़ना अनिवार्य होता है। व्रत निर्जला (बिना पानी), फलाहार (फल आदि) या जलाहार (केवल जल) रूप में किया जा सकता है। व्रत का समापन दूसरे दिन प्रातः पूजा के बाद सात्त्विक भोजन जैसे साबूदाना खिचड़ी, फल या उपवास के व्यंजन से होता है।

 

वट सावित्री व्रत के दौरान बोले जाने वाले मंत्र

 

वट वृक्ष की परिक्रमा करते समय महिलाएं विशेष व्रत मंत्र बोलती हैं जैसे – “वट सावित्री व्रतं करिष्ये, पति सौभाग्य सिद्धये।” तथा “सावित्री सत्यवान व्रतमहं करिष्ये।” ये मंत्र श्रद्धा, संकल्प और शक्ति का भाव उत्पन्न करते हैं और व्रती को आध्यात्मिक ऊर्जा प्रदान करते हैं।

 

भारत के विभिन्न क्षेत्रों में वट सावित्री व्रत की विविधताएँ

 

भारत में वट सावित्री व्रत को विभिन्न क्षेत्रों में अलग-अलग तरीकों से मनाया जाता है। उत्तर भारत – विशेषकर उत्तर प्रदेश और बिहार में यह व्रत बहुत धूमधाम से मनाया जाता है, जिसमें सप्ताह भर तक कथाएं, लोकगीत (सावित्री गीत), और सामूहिक आयोजन होते हैं। राजस्थान और गुजरात में महिलाएं सुंदर मेहंदी लगाती हैं और चांदी के आभूषणों की पूजा करती हैं। महाराष्ट्र और गोवा में इसे वट पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है जहाँ महिलाएं एक-दूसरे को कुमकुम लगाती हैं और पारंपरिक मिठाई जैसे पुरण पोली का भोग अर्पित करती हैं। तमिलनाडु में इसे करदैयान नोम्बू के रूप में जाना जाता है, जिसमें महिलाएं विशेष पीला धागा पहनती हैं और अड़ई नामक विशेष व्यंजन बनाती हैं। पश्चिम बंगाल में वट वृक्ष के साथ केले के पेड़ की भी पूजा की जाती है, जिससे भारतीय विविधता में एकता का सुंदर दृश्य देखने को मिलता है।

 

2025 में वट सावित्री व्रत का ज्योतिषीय महत्व

 

साल 2025 में व्रत की तिथियाँ ग्रह-नक्षत्रों के अनुसार विशेष महत्व रखती हैं। 26 मई की अमावस्या को चंद्रमा वृष राशि में और गुरु मिथुन राशि में रहेगा – यह योग दांपत्य जीवन में सामंजस्य, प्रेम और स्थिरता लाने वाला माना जाता है। 10 जून की पूर्णिमा को चंद्रमा वृश्चिक राशि में और उस पर मंगल की दृष्टि होगी, जिससे शक्ति, साहस और निष्ठा की ऊर्जा प्राप्त होती है। 26 मई को पूजा का शुभ मुहूर्त प्रातः 5:30 से 8:30, दोपहर 11:30 से 1:30 और संध्या 4:00 से 6:30 तक माने गए हैं। पूजा करते समय राहुकाल से बचना चाहिए क्योंकि यह अशुभ समय माना जाता है।

 

आधुनिक जीवन में व्रत का महत्व और वैज्ञानिक दृष्टिकोण

 

आज के समय में महिलाएं इस व्रत को नए रूपों में भी अपना रही हैं। जो महिलाएं शहरों में रहती हैं, वे अपने घरों की छत पर गमलों में वट वृक्ष लगाकर उसकी पूजा करती हैं। कई परिवार अब वर्चुअल कथा और पूजा आयोजित करते हैं जिससे दूर रह रहे सदस्य भी जुड़ पाते हैं। साथ ही, कई जगहों पर व्रत के दिन वृक्षारोपण और पर्यावरण जागरूकता अभियान भी चलाए जाते हैं, जिससे इस पर्व को और सार्थक बनाया जा रहा है। वैज्ञानिक रूप से देखा जाए तो उपवास करने से शरीर में ऑटोफैगी की प्रक्रिया होती है, जिससे कोशिकाओं की सफाई होती है और रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। वट वृक्ष की परिक्रमा करने से हल्का व्यायाम भी हो जाता है और मानसिक रूप से शांति मिलती है। वृक्ष के नीचे बैठकर ध्यान लगाने से तनाव और मानसिक थकावट में कमी आती है। इस प्रकार यह व्रत न केवल धार्मिक, बल्कि शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी लाभकारी है।

 

निष्कर्ष

 

वट सावित्री व्रत 2025 महिलाओं के लिए एक ऐसा पर्व है जो केवल धार्मिक कर्तव्य नहीं बल्कि प्रेम, समर्पण और आध्यात्मिक जागरूकता का प्रतीक है। यह पर्व वर्ष में दो बार भारत के अलग-अलग हिस्सों में ज्येष्ठ माह की अमावस्या और पूर्णिमा तिथि को मनाया जाता है, जो भारत की सांस्कृतिक विविधता को दर्शाता है। चाहे आप पारंपरिक विधि अपनाएं या आधुनिक तरीकों से इस पर्व को मनाएं, इसका मूल संदेश सदा एक ही रहता है – नारी की निष्ठा और प्रेम में वह शक्ति है जो भाग्य को भी बदल सकती है। यह व्रत हर वर्ष आने वाली एक ऐसी प्रेरणा है जो आने वाली पीढ़ियों को भी सिखाती है कि प्रेम, भक्ति और बुद्धिमत्ता से हर कठिनाई पर विजय प्राप्त की जा सकती है।

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